वह सुबह का ख्वाब होना चाहिये था,...

खूब लगता था नज़ारा,
गोद में था सर तुम्हारा,
हाथ में था हाथ,
आँखें कर रही थीं बात,
गेसू मेरे कदमों पर टिके अलसा रहे थे,...
आँच थी रुख्सार पर,
आरिज भी थे कुछ सुर्ख,
साँसों की तपिश हर कफ़स पिघलाती हुई सी|||

मैं तुम्हारी उँगलियों को उँगलियों से छेड़ता,
कुछ खेलता सा,...
कान में यूँ फ़ुसफ़ुसा के,
जाने क्या- क्या कह रहा था |
और तुम हर बात मेरी सुन के अक्सर खिलखिला के हँस रही थी |
थी हवा में खु़शग़वारी,
मौसमों में नूर सा छाया हुआ था

यूँ ना जाने क्या हुआ,
मैंने कहा कुछ,
या कि कुछ तुमने सुना...
बस वक्त में ठहराव सा इक गया,...
आँख की गहराई कुछ इतनी बढ़ी, कि
दिल ही मेरा डूबने सा लग गया
बात करना अब तो मुमकिन ही कहाँ था...
आँख थी आँखों के इतने पास,
कि उस दूर से कुछ भी नज़र
तेरे सिवा आता नहीं था |

आरिजों में एक जुंबिश थी तुम्हारे,
प्यास हो बरसों की जैसे कोई,
जिसको होंठ मेरे नर्मियों से पी रहे थे;
आँख थी यूँ बंद गोया सारी रानाई को खुद में कैद रखना चाहती हो;
होंठ पाकर होंठ का एहसास,जैसे बात करना भूल बैठे;...
और हम दोनों उसी तनहाई में यूँ साथ बैठे |||


दिल की धड़कन यूँ बढ़ी मेरी, कि मेरी नींद टूटी,
ख्वाब था यह ???
ख्वाब ही होगा,
तभी इतना हसीं था |||

सुनते आए थे सुबह के ख्वाब बनते हैं हक़ीक़त
पर अभी तो रात आधी ही हुई है,...
फिर तो बस यह सोचते ही रात बीती, उम्र बीती...|||
चंद घड़ियाँ ही सही, पर
मुझको शायद और सोना चाहिये था...
ख्वाब जो इतना हसीं था,
वह सुबह का ख्वाब होना चाहिये था ।।।

20th of September, 2006
1 Response
  1. Tushar Gaur Says:

    this is really wonderful work ....n also my type (u wr talking of sleeping )
    i think it is some where having reflection of gulzar ..........its great man