राज़ की बातें ज़रा सी, हम भी रखते हैं हुज़ूर,
डूबते सूरज को हम भी ख़ूब तकते हैं हुज़ूर |
मौसमों में जब कभी रंगीनियाँ पाते हैं हम,
बेखुदी में पाँव अपने भी थिरकते हैं हुज़ूर |
देखकर रानाइयाँ, हम पर भी चढ़ता है सुरूर,
हो भले अदना, मगर दिल हम भी रखते हैं हुज़ूर |
नर्म आरिज, गर्म साँसे, स्याह गेसू, इश्क हर सू,
हम भी तो रूमानियत को ही तरसते हैं हुज़ूर |
-12th October, 2003
बारह मुड़़-मुड़ के पीछे देखता रहता हूँ मैं,
कोई जो मेरा है, शायद वो भी बेआवाज़ हो |
उसकी बातों से कहीं खो सा गया वो अपनापन,
शायद उसके इश्क का यह भी कोई अंदाज़ हो |
एक ही ख्वाहिश को लेकर, जीते आए अब तलक,
हर नए लम्हे का उसके साथ ही आगाज़ हो |
आओ कह दें अपनी सारी हसरतें, हर रंज--ग़म,
कुछ ना अपने बीच हो ऐसा की जिसमें राज़ हो |
माँगने आए ज़माना, हमने अपना दिल दिया,
तुम सा फरियादी, ना कोई हम सा बन्दा-नवाज़ हो |
उसके जाने से कुछ संभली तबीयत तो ज़रूर,
वो चला जाए, तो जाने कैसा अपना मिजाज़ हो |
इश्क की लय पर थिरक उठता है हर दिल एक सा,
कोई सा भी राग हो फिर, कोई सा भी साज़ हो |
मैं खुदा से माँग पाया आज तक बस इक दुआ,
आसमाँ उसका बड़ा, ऊँची मेरी परवाज़ हो |
हर मसर्रत की किरन से नाम हो मेरा जुड़ा,
कुछ तो कर जाऊँ की जिस पर माँ को मेरी नाज़ हो |||
- 18th August, 2003
कई रोज़ पीछे...
यह सारा ज़माना, यूँ लगता था जैसे
हमारे इशारों पे चलने लगा हो |
हमारी रज़ा से ही उगता हो सूरज,
हमारी इजाज़त से ढलने लगा हो |
वो मौसम जो रूठा था हमसे हमेशा,
लगा जैसे खुद ही बदलने लगा हो |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
बहुत खुशनुमा सी हसीँ ज़ीस्त थी,
हम किसी का तसव्वुर किए जा रहे थे |
बढ़ी प्यास तब भी थी यूँ ही हमारी,
निगाहों को हम भी पिए जा रहे थे |
थी बादा मेरे चार सू हर घड़ी,
हम भी मयनोश खुद को किए जा रहे थे |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
वो सब कुछ था मेरा, कि
जिसके लिए दिल में अरमाँ रहा हो |
जो मिलता था हमसे, यूँ लगता था जैसे
वो बरसों से इस दिल का मेहमाँ रहा हो |
मेरी रूह को राहतें मिल गईं,
दूर
इस दिल से हर एक तूफाँ रहा हो |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
था जैसा ज़माना, वो
जाने क्यूँ लगता है मुश्किल है पाना |
जो किस्से सुनाने की आदत थी हमको,
हकीकत थे पहले, तो अब क्यूँ फ़साना ?
खुदाया हमें तो समझ में ना आया,
अगर तुमको आए, हमें भी बताना |
कई रोज़ पीछे...

-06th August, 2009
[I wrote something after a real long time. Seems as if I've grown out of touch with this art of writing. Let's see anyways ...]
वक्त कुछ ऐसे भागता है जनाब,
जैसे मंजिल उसे ही पानी हो |
रंग लाती है, हो कोई भी शराब,
और क्या ख़ूब, ग़र पुरानी हो |
उसकी बातों का नहीं कोई जवाब,
गोया हर लफ्ज़ एक कहानी हो |
बात हो जाए, मिल भी जाए जवाब,
चाहे आंखों से हो, ज़ुबानी हो |
अब नहीं कोई आरज़ू--सवाब,
मुझपे हावी, मेरी जवानी हो |
-20th May, 2004