अब बरसों बरस जलेगी आग,

प्रणय-रात्रि में इस प्रकार,
थे दग्ध अधर करते पुकार,
खुद ढोते अपना अग्नि-भार,...
वह मिले रीत जाने को पर,
यूँ हुआ अचानक चमत्कार,
विस्फोट हुआ और ज्वलित हो उठे,
सभी अंग, हर एक भाग,
अब बरसों बरस जलेगी आग ...

दिनमान उगा और बीत गया,
चन्दा शीतलता रीत गया,
पल-छिन सारे वाचाल गए,
दिन गए, वर्ष विकराल गए,
सब ऋतुएँ और ऋतुराज गए,
कुछ कल लौटे कुछ आज गए,
पर अग्नि-ज्वार कम हो ना सका,
गा देखे कितने ‘मेघ-राग’,
अब बरसों बरस जलेगी आग…

यह प्रेम-अग्नि है मूढ़ मने,
यह अपना ईंधन स्वयं बने,
सन्त्रप्ति नहीं इसके वश में,
जलकर चाहे सब राख बने,
कितने निश्पाप ह्रदय इसमें,
सर्वस्व होम कर बैठे हैं,
कुछ जलने में सुख पाते हैं,
कुछ घबराते डर बैठे हैं,
बच पाया फिर भी कोई नहीं,
ना वह जो इससे भाग रहे,
ना वह जो अपनाते ‘विराग’
अब बरसों बरस जलेगी आग…

6th of August, 2006
{sitting in Aashram Express heading for Ahmedabad from Delhi...the time was around 09:15pm...what a solitary moment...what a mood it was...mmmmmmm...can't forget...}
1 Response
  1. Gaurav Says:

    speechless, dumbfounded, intrigued, astounded, bowled over....Man !!!

    Bahut Jabar likhte ho be...kasam se dil khuss ho gaya.

    Looks like I am the only one commenting, but who cares...

    too good dear, too good...

    Hindi, urdu...ab hasya me mat ghus jana..that is my field you know. None the less, my best wishes. Make me proud...