दिन की आभा लुप्त हो चली,
निशा रूप अवतरित हुआ;
परिवर्तन का कर्मठ राही
थक कर पस्त हुआ...|
दिनकर अस्त हुआ ||

निशाचरों की सत्ता लौटी,
सन्नाटा उद्घोष हुआ;
एकाकी उलूक नीड़ से
उड़कर मस्त हुआ...|
दिनकर अस्त हुआ ||

रात ढले, माँ ने सर
गोदी में रख सहलाया, दुलराया ;
मेरी जीवन पूँजी
माँ का मधुकर हस्त हुआ...|
दिनकर अस्त हुआ ||
मार्स की धरती सुना है लाल सी है,
है सुना यह भी कि जीवन भी वहाँ जन्मा कभी था,
और पढ़ा यह भी कि सब कुछ हो चुका समाप्त है...
सारी दुनिया को यही चिंता लगी है आज तक,
कोई भी संकेत इसका उसको मिलता क्यों नहीं
इतने विस्तृत जीवन का कोई छोटा सा प्रमाण तक नहीं ...

हम भी ऐसे ही प्रयास का बन बैठे इक अंश,
जो आया अपने हाथ, लगा वह जैसे कोई दंश,
हमने जाना कि थी वहाँ भी सृष्टि अपने चरम पर,
था मानव भी अपने हर स्वरुप में वहाँ पर,
मिला उसे भी था उतना ही विकास जितना हम पाने को आतुर हैं
और कुछ सामान जैसे असलहा बारूद, अणु-बम,
और इक जंग जो वहाँ छिड़ी और यहाँ छिड़ने को है,
जंग जो हुई और हुई फिर कभी ना होने के लिए,
आख़िर उसने छोड़ा ही किसे लड़ने के लिए,
छोड़ा तो बस लहू में डूबा एक समूचा गृह,
वह लहू जिसके दाग आज तक ना धुल सके,
वह लहू जिसकी लाली सर्व-व्यापी हो गई |

हमारी धरती सुना है सुदूर अन्तरिक्ष से देखो,
तो सुंदर नीली दिखती है,
अब करो प्रतीक्षा, उस दिन, उस पल की,
जब यह भी लाल दिखेगी, लहू सी लाल,...

करो प्रतीक्षा, या संभल जाओ,
मरज़ी सिर्फ़ तुम्हारी है,
धरती हम सब की है...
तुम्हारी है...
-25th September, २००४
{Written as an attempt to experiment with my style of writing, going this time for 'अगीत काव्य'- the poetry that in simple words is not a गीत i.e. can't be put to music. But I realized this style does'nt suite me. I am uploading this just for my sake. I like the idea of the above poem, but may be the style is something that I could not follow properly. May be I'll give it a second try )
हम I.D.C ke विद्यार्थी,
हम I.D. पढ़ने जाते हैं,
हम Form बिगाड़ा करते हैं,
गुब्बारे फाड़ा करते हैं,
होता हमसे कुछ काम नहीं,
बस बातें झाड़ा करते हैं |
हम soap solution पीते हैं,
P.O.P. खाया करते हैं,
कुछ और ना हो तो Clay से ही
हम काम चलाया करते हैं |
जब दूर देस से आगन्तुक,
मिलने को आया करते हैं,
हम कर्म साधना में अपने को
मगन दिखाया करते हैं |
हम घिसते-घिसते हार गए,
पर right angle कैसे पाएँ,
भर-भर balloon हम रीत गए,
पर balloonness कैसे लाएँ |
यह metamorphosis करने में,
हम स्वयं बदल से जाते हैं,
कल तक इंसानों जैसे थे,
अब बन्दर जैसा पाते हैं |
पर जो भी हो, जैसा भी हो,
हमने कुछ तो सीखा-जाना,
यह पहली सीढ़ी पार हुई,
पर ऊँचा बहुत हमें जाना |
हम patil Sir के आभारी,
Chakku Sir अपने अधिकारी,
नव-दृष्टि इन्ही से पाकर हम,
फिर देख रहे दुनिया सारी |
सब सीख-समझ के इक दिन,
हम भी अपनी Life बना लेंगे,
कुछ ही दिन में सब सपनो का
हम prototype बना लेंगे |
-5th August, 2008
मेरे मरने का उनको ग़म नहीं है !

ज़ुबाँ ख़ामोश है,
लब खुश्क हैं,
आँखें हैं पत्थर सी...

है बरहम ज़ुल्फ़,
टूटे ख़्वाब सी
सूरत है हजरत की...

और उस पर ख़ूब यह कहना
कि "यह मातम नहीं है"

मेरे मरने का उनको ग़म नहीं है?
-30th of December, 2004
{I think this is one of my good ones...feel good about having written it}