Jul
08

 जो दिखाना है दिखाओ जलवा,

अपना वादा है कि सब देखेंगे ...

आंख जलने लगे, या कान सुलगने ही लगें,

सारे आज़ाब उठाएंगे, मगर देखेंगे ।

-वाहियात
[10 May 2012]
Aug
17
हर दुआ में मेरी असर होता,
काश मैं कोई पयम्बर होता ॥ 
ज़ुल्फ़ के साए तीरगी करते,
बे-ख़लल  नींद का सफर होता ॥ 
चंद मिसरात, और लतीफ़े कुछ,
दिन मसर्रत में यूँ बसर होता ॥ 


-16 August 2014

Jan
29
इक तबस्सुम से जो चल निकली थी,
वो भी दीदा- तरी पे आ पहुँची । 
सिलसिले वारियों ठहर जाओ,
बात फ़िर रुख़सती पे आ पहुँची ॥ 

-वाहियात 17th January 2014
Jun
18
ऐसी आतिश निगाह-ए-तर में उठी,
जिसको देखा, वो जला जाता है ।

हर भरम से भरा किये इसको,
पर कहाँ दिल का खला जाता है ।

एक कंधे की तलब थी जिसको,
चार कन्धों पे चला जाता है ।

एक यह जाँ, जो निकलती ही नहीं,
एक यह दिल जो गला जाता है ।

सख्त ठहरे हैं हिजाबों के रिवाज़,
अपना अंजाम टला जाता है ।

'वाहियात' जिस गली से भी गुज़रा,
शोर निकला, कि भला जाता है ।


-18 June 2013
Dec
14
लाखों दाग़ हैं इस दामन में,
एक इज़ाफ़ा और सही...



-19 May 2009
Dec
14
यह सारा माजरा क्या है ?

तुम्हारे ज़हन की गलियाँ गुनाहों सी अँधेरी हैं,
कब उनमें क्या गुज़रता है नज़र हरगिज़ नहीं आता |

तुम्हारे होंठ बुत से हैं, ना जाने क्यूँ नहीं खुलते ;
कोई वादा उन्हें रोके हो जैसे मुस्कुराने से |

तुम्हारे हाथ की गर्मी न जाने क्यूँ नदारद है ,
असर मालूम होता है गए बरसों की सर्दी का |

है पत्थर सी हुई आँखें, मगर यह मोजज़ा क्या है !
किसी झरने सी क्यूँ अक्सर यह फ़िर बेरोक बहती हैं ?

तुम्हारे जिस्म में जो दिल किसी कोने में बसता था,
सुनाई ही नहीं देता,
बहुत ख़ामोश है कुछ दिन से |
न हँसता है,
न रोता है,
न मुझसे पूछता है कुछ,
न अपने जी की कहता है;
न नगमे गुनगुनाता है,
न पहले की तरह बातों के जुगनू जगमगाता है ;
मगर फ़िर भी गुमाँ  होता है कि जिंदा है वो अब भी ;
उसे महफूज़ रखना तुम,
की उसमें बेशुबा 

थोडा तो हिस्सा है हमारा भी |

फ़ना के रोज़ जब मैं नींद के बोसे की सोहबत में
तुम्हारी ओर देखूंगा,...
ज़रा सा मुस्कुरा देना ;
मुझे कुछ प्यार दे देना ;
भरोसा थोड़ा कर लेना ;

मेरी इतनी गुजारिश है,
मुझे बर्दाश्त कर लेना,
मेरे सारे गुनाहों को,
बस उस दिन माफ़ कर देना...|


-वाहियात
[22-26th October, 2010]
Jun
11
समर्पित भावना सी तुम हो,
मैं संबंध हूँ निष्प्राण सा |
सुमंगल कामना सी तुम हो,
और मैं हूँ कलंकित प्यार सा |
सनेही लेप सी तुम हो,
और मॆं व्याधिहीन विकार सा |
सुखद आलिंगनों सी तुम हो, 
और मॆं प्राणघातक वार सा |
मधुमयी बैन सी तुम हो, 
और मॆं अनकहे उद्गार सा |
सुकोमल पंखुड़ी सी तुम हो,
और मॆं धधकते अंगार सा |
विजय परचम सी तुम स्वच्छंद हो,
और मॆं विवश हूँ हार सा |
सुनहरी भोर सी तुम हो, 
और मॆं उनींदे संसार सा |
प्रिये! इक दिन तो ऐसा हो,
बनूँ मॆं जब तेरे अनुसार सा |
-11th June, 2010
Mar
27
यह रचना हमने अपने मित्र पलाश की एक फिल्म के लिए लिखी थी | मेरी लेट-लतीफी के चलते इसका उपयोग फिल्म में हो नहीं सका, परन्तु इसे लिखने का अनुभव मॆं अब तक भूल नहीं पाया | एक अनुरोध है, कि इसे पढ़ते समय, पलाश की फिल्म को अवश्य ध्यान में रखें | फिल्म का लिंक नीचे दिया हुआ है...अद्भुत कृति है पलाश की यह | इसमें हिस्सेदारी मेरा सौभाग्य होता |




मॆं सोच रहा हूँ, ख़्वाब तुम्हारे
रोज़ न आते तो क्या होता ?
तेरे प्यार की बारिश में
हम नहीं नहाते तो क्या होता ?
साज़ यह केवल गीत तुम्हारे
नहीं सुनाते तो क्या होता ?
सोचता हूँ अक्सर मॆं ऐसा,
पर यह मुमकिन कैसे होता !

तुम अफसाना या ख़्वाब नहीं
तुम सच थी, जिंदा थी, मेरी थी,
तुम हवा थी, मौसम थी, बारिश थी,
और बरसी थी भरपूर
मेरे तन पे, मन पे
तुम संदल की खुशबू थी,
रोशन माह-ताब थी,
मॆं याद तुम्हारी खो देता
पर यह मुमकिन कैसे होता !

फ़िर मौका है, फ़िर मौसम है,
और याद तुम्हारी कायम है,
बारिश भी मद्धम-मद्धम है
हम हैं, मय है, तेरा ग़म है
वो दिन बीते, बरसों बीते,
ऐ काश कभी तो मॆं तुमसे
यूँ तारों में ही मिल पाता,
पर यह मुमकिन कैसे होता !

है याद तुम्हें वो रात
कही जब तुमने दिल की बात ?
क्या कहूँ जल उठे थे जाने
कितने चिराग तब एक साथ |
तुम शर्म से घुलती जाती थी,
मॆं मदहोशी में बहका था |
शायद मॆं संभल गया होता
पर यह मुमकिन कैसे होता !

इस वक़्त कौन घर आया है?
तनहा को किसने याद किया?

यह तुम हो,...हाँ तुम ही तो हो...
यह ख़्वाब है ये ताबीर कोई ?

ना ख़्वाब है, ना ताबीर है यह
यह एक हकीकत है शायद |
और तुम इसमें कितनी खुश हो,
एक नूर सा रुख पे छाया है
यह देख के मेरी रूह को भी,
कितना सुकून अब आया है
बस एक तुम्हारी आमद से,
सब कुछ मुमकिन हो पाया है |


-24th April 2009


The original document can be seen below :


Aug
08
राज़ की बातें ज़रा सी, हम भी रखते हैं हुज़ूर,
डूबते सूरज को हम भी ख़ूब तकते हैं हुज़ूर |
मौसमों में जब कभी रंगीनियाँ पाते हैं हम,
बेखुदी में पाँव अपने भी थिरकते हैं हुज़ूर |
देखकर रानाइयाँ, हम पर भी चढ़ता है सुरूर,
हो भले अदना, मगर दिल हम भी रखते हैं हुज़ूर |
नर्म आरिज, गर्म साँसे, स्याह गेसू, इश्क हर सू,
हम भी तो रूमानियत को ही तरसते हैं हुज़ूर |
-12th October, 2003
Aug
08
बारह मुड़़-मुड़ के पीछे देखता रहता हूँ मैं,
कोई जो मेरा है, शायद वो भी बेआवाज़ हो |
उसकी बातों से कहीं खो सा गया वो अपनापन,
शायद उसके इश्क का यह भी कोई अंदाज़ हो |
एक ही ख्वाहिश को लेकर, जीते आए अब तलक,
हर नए लम्हे का उसके साथ ही आगाज़ हो |
आओ कह दें अपनी सारी हसरतें, हर रंज--ग़म,
कुछ ना अपने बीच हो ऐसा की जिसमें राज़ हो |
माँगने आए ज़माना, हमने अपना दिल दिया,
तुम सा फरियादी, ना कोई हम सा बन्दा-नवाज़ हो |
उसके जाने से कुछ संभली तबीयत तो ज़रूर,
वो चला जाए, तो जाने कैसा अपना मिजाज़ हो |
इश्क की लय पर थिरक उठता है हर दिल एक सा,
कोई सा भी राग हो फिर, कोई सा भी साज़ हो |
मैं खुदा से माँग पाया आज तक बस इक दुआ,
आसमाँ उसका बड़ा, ऊँची मेरी परवाज़ हो |
हर मसर्रत की किरन से नाम हो मेरा जुड़ा,
कुछ तो कर जाऊँ की जिस पर माँ को मेरी नाज़ हो |||
- 18th August, 2003
Aug
06
कई रोज़ पीछे...
यह सारा ज़माना, यूँ लगता था जैसे
हमारे इशारों पे चलने लगा हो |
हमारी रज़ा से ही उगता हो सूरज,
हमारी इजाज़त से ढलने लगा हो |
वो मौसम जो रूठा था हमसे हमेशा,
लगा जैसे खुद ही बदलने लगा हो |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
बहुत खुशनुमा सी हसीँ ज़ीस्त थी,
हम किसी का तसव्वुर किए जा रहे थे |
बढ़ी प्यास तब भी थी यूँ ही हमारी,
निगाहों को हम भी पिए जा रहे थे |
थी बादा मेरे चार सू हर घड़ी,
हम भी मयनोश खुद को किए जा रहे थे |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
वो सब कुछ था मेरा, कि
जिसके लिए दिल में अरमाँ रहा हो |
जो मिलता था हमसे, यूँ लगता था जैसे
वो बरसों से इस दिल का मेहमाँ रहा हो |
मेरी रूह को राहतें मिल गईं,
दूर
इस दिल से हर एक तूफाँ रहा हो |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
था जैसा ज़माना, वो
जाने क्यूँ लगता है मुश्किल है पाना |
जो किस्से सुनाने की आदत थी हमको,
हकीकत थे पहले, तो अब क्यूँ फ़साना ?
खुदाया हमें तो समझ में ना आया,
अगर तुमको आए, हमें भी बताना |
कई रोज़ पीछे...

-06th August, 2009
[I wrote something after a real long time. Seems as if I've grown out of touch with this art of writing. Let's see anyways ...]
Aug
02
वक्त कुछ ऐसे भागता है जनाब,
जैसे मंजिल उसे ही पानी हो |
रंग लाती है, हो कोई भी शराब,
और क्या ख़ूब, ग़र पुरानी हो |
उसकी बातों का नहीं कोई जवाब,
गोया हर लफ्ज़ एक कहानी हो |
बात हो जाए, मिल भी जाए जवाब,
चाहे आंखों से हो, ज़ुबानी हो |
अब नहीं कोई आरज़ू--सवाब,
मुझपे हावी, मेरी जवानी हो |
-20th May, 2004
Nov
07
दिन की आभा लुप्त हो चली,
निशा रूप अवतरित हुआ;
परिवर्तन का कर्मठ राही
थक कर पस्त हुआ...|
दिनकर अस्त हुआ ||

निशाचरों की सत्ता लौटी,
सन्नाटा उद्घोष हुआ;
एकाकी उलूक नीड़ से
उड़कर मस्त हुआ...|
दिनकर अस्त हुआ ||

रात ढले, माँ ने सर
गोदी में रख सहलाया, दुलराया ;
मेरी जीवन पूँजी
माँ का मधुकर हस्त हुआ...|
दिनकर अस्त हुआ ||
Nov
07
मार्स की धरती सुना है लाल सी है,
है सुना यह भी कि जीवन भी वहाँ जन्मा कभी था,
और पढ़ा यह भी कि सब कुछ हो चुका समाप्त है...
सारी दुनिया को यही चिंता लगी है आज तक,
कोई भी संकेत इसका उसको मिलता क्यों नहीं
इतने विस्तृत जीवन का कोई छोटा सा प्रमाण तक नहीं ...

हम भी ऐसे ही प्रयास का बन बैठे इक अंश,
जो आया अपने हाथ, लगा वह जैसे कोई दंश,
हमने जाना कि थी वहाँ भी सृष्टि अपने चरम पर,
था मानव भी अपने हर स्वरुप में वहाँ पर,
मिला उसे भी था उतना ही विकास जितना हम पाने को आतुर हैं
और कुछ सामान जैसे असलहा बारूद, अणु-बम,
और इक जंग जो वहाँ छिड़ी और यहाँ छिड़ने को है,
जंग जो हुई और हुई फिर कभी ना होने के लिए,
आख़िर उसने छोड़ा ही किसे लड़ने के लिए,
छोड़ा तो बस लहू में डूबा एक समूचा गृह,
वह लहू जिसके दाग आज तक ना धुल सके,
वह लहू जिसकी लाली सर्व-व्यापी हो गई |

हमारी धरती सुना है सुदूर अन्तरिक्ष से देखो,
तो सुंदर नीली दिखती है,
अब करो प्रतीक्षा, उस दिन, उस पल की,
जब यह भी लाल दिखेगी, लहू सी लाल,...

करो प्रतीक्षा, या संभल जाओ,
मरज़ी सिर्फ़ तुम्हारी है,
धरती हम सब की है...
तुम्हारी है...
-25th September, २००४
{Written as an attempt to experiment with my style of writing, going this time for 'अगीत काव्य'- the poetry that in simple words is not a गीत i.e. can't be put to music. But I realized this style does'nt suite me. I am uploading this just for my sake. I like the idea of the above poem, but may be the style is something that I could not follow properly. May be I'll give it a second try )