कई रोज़ पीछे...
यह सारा ज़माना, यूँ लगता था जैसे
हमारे इशारों पे चलने लगा हो |
हमारी रज़ा से ही उगता हो सूरज,
हमारी इजाज़त से ढलने लगा हो |
वो मौसम जो रूठा था हमसे हमेशा,
लगा जैसे खुद ही बदलने लगा हो |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
बहुत खुशनुमा सी हसीँ ज़ीस्त थी,
हम किसी का तसव्वुर किए जा रहे थे |
बढ़ी प्यास तब भी थी यूँ ही हमारी,
निगाहों को हम भी पिए जा रहे थे |
थी बादा मेरे चार सू हर घड़ी,
हम भी मयनोश खुद को किए जा रहे थे |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
वो सब कुछ था मेरा, कि
जिसके लिए दिल में अरमाँ रहा हो |
जो मिलता था हमसे, यूँ लगता था जैसे
वो बरसों से इस दिल का मेहमाँ रहा हो |
मेरी रूह को राहतें मिल गईं,
दूर
इस दिल से हर एक तूफाँ रहा हो |
कई रोज़ पीछे...

कई रोज़ पीछे...
था जैसा ज़माना, वो
जाने क्यूँ लगता है मुश्किल है पाना |
जो किस्से सुनाने की आदत थी हमको,
हकीकत थे पहले, तो अब क्यूँ फ़साना ?
खुदाया हमें तो समझ में ना आया,
अगर तुमको आए, हमें भी बताना |
कई रोज़ पीछे...

-06th August, 2009
[I wrote something after a real long time. Seems as if I've grown out of touch with this art of writing. Let's see anyways ...]
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