यह सारा माजरा क्या है ?

तुम्हारे ज़हन की गलियाँ गुनाहों सी अँधेरी हैं,
कब उनमें क्या गुज़रता है नज़र हरगिज़ नहीं आता |

तुम्हारे होंठ बुत से हैं, ना जाने क्यूँ नहीं खुलते ;
कोई वादा उन्हें रोके हो जैसे मुस्कुराने से |

तुम्हारे हाथ की गर्मी न जाने क्यूँ नदारद है ,
असर मालूम होता है गए बरसों की सर्दी का |

है पत्थर सी हुई आँखें, मगर यह मोजज़ा क्या है !
किसी झरने सी क्यूँ अक्सर यह फ़िर बेरोक बहती हैं ?

तुम्हारे जिस्म में जो दिल किसी कोने में बसता था,
सुनाई ही नहीं देता,
बहुत ख़ामोश है कुछ दिन से |
न हँसता है,
न रोता है,
न मुझसे पूछता है कुछ,
न अपने जी की कहता है;
न नगमे गुनगुनाता है,
न पहले की तरह बातों के जुगनू जगमगाता है ;
मगर फ़िर भी गुमाँ  होता है कि जिंदा है वो अब भी ;
उसे महफूज़ रखना तुम,
की उसमें बेशुबा 

थोडा तो हिस्सा है हमारा भी |

फ़ना के रोज़ जब मैं नींद के बोसे की सोहबत में
तुम्हारी ओर देखूंगा,...
ज़रा सा मुस्कुरा देना ;
मुझे कुछ प्यार दे देना ;
भरोसा थोड़ा कर लेना ;

मेरी इतनी गुजारिश है,
मुझे बर्दाश्त कर लेना,
मेरे सारे गुनाहों को,
बस उस दिन माफ़ कर देना...|


-वाहियात
[22-26th October, 2010]
1 Response
  1. Gaurav Says:

    अमा छोडो मियाँ...अब कुछ आशिकाना लिखो.. दिन बदल रहे हैं तुम्हारे...

    वैसे बात तो दिल की कह ही देते हो तुम..जाने, अनजाने ही सही.. :-)