समर्पित भावना सी तुम हो,
मैं संबंध हूँ निष्प्राण सा |
सुमंगल कामना सी तुम हो,
और मैं हूँ कलंकित प्यार सा |
सनेही लेप सी तुम हो,
और मॆं व्याधिहीन विकार सा |
सुखद आलिंगनों सी तुम हो, 
और मॆं प्राणघातक वार सा |
मधुमयी बैन सी तुम हो, 
और मॆं अनकहे उद्गार सा |
सुकोमल पंखुड़ी सी तुम हो,
और मॆं धधकते अंगार सा |
विजय परचम सी तुम स्वच्छंद हो,
और मॆं विवश हूँ हार सा |
सुनहरी भोर सी तुम हो, 
और मॆं उनींदे संसार सा |
प्रिये! इक दिन तो ऐसा हो,
बनूँ मॆं जब तेरे अनुसार सा |
-11th June, 2010
7 Responses
  1. किसी प्रेमी कवि की रचना की चोट को समझने के लिये कभी कभी उसको व्यक्तिगत रूप से जानना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है।
    मुझे ये रचना बहुत ही पसन्द आयी, इसीलये भी कि मैं इसका अर्थ समझता हूं, और इसीलिये भी कि मैं शायद इसका प्रसन्ग भी जानता हूँ......


  2. vikas Says:

    सागर वहाँ इतने भी न थे,
    जितना यहाँ बखान है....
    बूँद बूँद की कोशिश रही थी,
    वक़्त ज़रा बेईमान था....


  3. Tushar Gaur Says:

    मज़ा आ गया तुम्हारी 'तुम' जान के .....

    यकीनन बहुत ही उम्दा ... !!!


  4. @Amit : Pata nahin dost, kis prasang ka ziqr kar rahe ho, magar haan, premi chahe kavi ho na ho, chot ka maza zaroor leta hai kabhi na kabhi. Aur premi-kavi ka saubhaagya hota hai ki wo uss chot mein kaavya-saundarya dhoondh leta hai.


  5. @Vikas : Bhai! Maar hi daaloge.


  6. @Tushar : Maalik, aapki nawaazish hi hai jisne hausla banaye rakha hai. Warna hum to naacheez hi hain hamesha se.


  7. Anonymous Says:

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