यह रचना हमने अपने मित्र पलाश की एक फिल्म के लिए लिखी थी | मेरी लेट-लतीफी के चलते इसका उपयोग फिल्म में हो नहीं सका, परन्तु इसे लिखने का अनुभव मॆं अब तक भूल नहीं पाया | एक अनुरोध है, कि इसे पढ़ते समय, पलाश की फिल्म को अवश्य ध्यान में रखें | फिल्म का लिंक नीचे दिया हुआ है...अद्भुत कृति है पलाश की यह | इसमें हिस्सेदारी मेरा सौभाग्य होता |




मॆं सोच रहा हूँ, ख़्वाब तुम्हारे
रोज़ न आते तो क्या होता ?
तेरे प्यार की बारिश में
हम नहीं नहाते तो क्या होता ?
साज़ यह केवल गीत तुम्हारे
नहीं सुनाते तो क्या होता ?
सोचता हूँ अक्सर मॆं ऐसा,
पर यह मुमकिन कैसे होता !

तुम अफसाना या ख़्वाब नहीं
तुम सच थी, जिंदा थी, मेरी थी,
तुम हवा थी, मौसम थी, बारिश थी,
और बरसी थी भरपूर
मेरे तन पे, मन पे
तुम संदल की खुशबू थी,
रोशन माह-ताब थी,
मॆं याद तुम्हारी खो देता
पर यह मुमकिन कैसे होता !

फ़िर मौका है, फ़िर मौसम है,
और याद तुम्हारी कायम है,
बारिश भी मद्धम-मद्धम है
हम हैं, मय है, तेरा ग़म है
वो दिन बीते, बरसों बीते,
ऐ काश कभी तो मॆं तुमसे
यूँ तारों में ही मिल पाता,
पर यह मुमकिन कैसे होता !

है याद तुम्हें वो रात
कही जब तुमने दिल की बात ?
क्या कहूँ जल उठे थे जाने
कितने चिराग तब एक साथ |
तुम शर्म से घुलती जाती थी,
मॆं मदहोशी में बहका था |
शायद मॆं संभल गया होता
पर यह मुमकिन कैसे होता !

इस वक़्त कौन घर आया है?
तनहा को किसने याद किया?

यह तुम हो,...हाँ तुम ही तो हो...
यह ख़्वाब है ये ताबीर कोई ?

ना ख़्वाब है, ना ताबीर है यह
यह एक हकीकत है शायद |
और तुम इसमें कितनी खुश हो,
एक नूर सा रुख पे छाया है
यह देख के मेरी रूह को भी,
कितना सुकून अब आया है
बस एक तुम्हारी आमद से,
सब कुछ मुमकिन हो पाया है |


-24th April 2009


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