आज मौजू नहीं मिलता था कोई मिसरे का,
बस इसी सोच में यह शेर लिख दिया हमने |
-08th of February,2001
{I am very fond of this one.Somethings just can't get any better.This one is also just too perfect.Love this couplet.}

{अब मौजू अर्थात 'विषय' or 'Topic',
और मिसरा के मानी होते हैं 'किसी भी अश्-आर(शेर) की एक पंक्ति' i.e. 'One of the lines of any couplet'}
किस-किस का बुरा मानें,
किस-किस से अदावत लें,
हर शख्स हैं जब मुझसे,
कुछ-कुछ खफ़ा-खफ़ा सा |
-23rd of March,2001
खरामा-खरामा चले जा रहे थे,
किसी का तसव्वुर किये जा रहे थे |
तसव्वुर का सामाँ थे कुछ प्यारे लम्हे,
हमें ज़िन्दगी से हैं प्यारे जो लम्हे |
कभी उसकी भोली सी, मीठी सी बातें,
कभी उसकी ज़ुल्फ़ों की मदहोश रातें,
कभी उसका हँस पड़ना यूँ खिलखिलाकर,
की जैसे कोई माह बदली से झाँके,
कभी बेखता रूठ जाना हमीं से,
कभी कहना "हाँ ! इश्क हैं हमको तुमसे!"
कभी मेरे काँधे पे सर अपना रख के,
नम आँखों से किस्सा--ग़म भी सुनाना,
कभी गोद में मेरी रख के सर अपना,
मुझे बादशाह--खु़दाई बनाना,
कभी बोसा रूख्सार पर मेरे देकर,
तबीयत को गुलफ़ाम सा महका जाना,
कभी डाल कर बाँहें मेरे गले में,
मुझे देर तक एकटक टकते जाना |
ख्यालों-ख्यालों में हम जाने कैसे,
यूँ दीदार--जन्नत किये जा रहे थे |
-27th of January,2001
हमारे रकीबों की आदत है ऐसी,
हबीबों में हमको गिनाते हैं अक्सर |
हमारे रकीबों की किस्मत है ऐसी,
हबीबों में हमको वह पाते हैं अक्सर |
हमारे रकीबों की ग़ुरबत है ऐसी,
हबीबों को पा-पा के खोते हैं अक्सर |
हमारी रकीबों से कुरबत है ऐसी,
जिधर देख लें, उनको पाते हैं अक्सर |
-18th of January, 2006
उसका होना ?...यह इक हकीकत है,
उसको पा लेना ?...यह फ़साना है |
-18th of January,2006
जब शो़खि़-ए-गुल उनकी निगाहों में मिले,
फिर क्या करें बहार जो राहों में मिले |
सुकून-ए-जाँ के फ़क़त दो ही ठिकाने पाए,
यह उनके पास, या बस माँ की पनाहों में मिले |
खुशी-खुशी में ही मर जाएँ अगर ऐसा हो,
हमारा दर्द कभी उनकी कराहों में मिले |
-07th of February, 2006
मुझे मालूम है वह ख़्वाब है,
फिर भी जाने क्यूँ,
मैं जब भी सोचता हूँ उसको, अपने साथ पाता हूँ |
मुझे हर साँस उसकी गाल पर से छू के जाती हें,
मैं उसकी धड़कनें सुन सकता हूँ अपने ही सीने पर,
मैं उसकी नर्म लंबी उंगलियों को चूम सकता हूँ,
मुझे उसके बदन की तपिश भी महसूस होती हें,
मैं उसके पैरहन की सिलवटें सब देख सकता हूँ,
मैं उसकी आंख के वह लाल डोरे गिन भी सकता हूँ,
घनेरे गेसुओं की खुशबुओं में खो भी सकता हूँ,
मैं उसकी गोद में सर अपना रख के सो भी सकता हूँ,
मैं सारे ख़्वाब अपने, साथ उसके बाँट सकता हूँ,
जगें जब दर्द तो काँधे पे उसके रो भी सकता हूँ,
मैं उसको देख सकता हूँ,
मैं उसको सुन भी सकता हूँ,
मैं उसको छू भी सकता हूँ,
मगर फिर भी ना जाने क्यूँ...
...मैं उसको पा नहीं सकता,
ख़लिश जो हर घड़ी,हर वक़्त
मेरे दिल में रहती है,
उसे कम कर नहीं सकता,
वह मेरी हो नहीं सकती,
मैं उसका हो नहीं सकता...|||
-31st of January, 2006